भाषा विकास का अध्यापन
अधिगम और अर्जन, भाषा अध्यापन के सिद्धांत, सुनने और बोलने की भूमिका; भाषा का कार्य तथा बालक इसे किस प्रकार एक उपकरण के रूप में प्रयोग करते हैं, मौखिक और लिखित रूप में विचारों के संप्रेषण के लिए किसी भाषा के अधिगम में व्याकरण की भूमिका पर निर्णायक संदर्श, एक भिन्न कक्षा में भाषा पढ़ाने की चुनौतियां; भाषा की कठिनाइयां, त्रुटियां और विकार, भाषा कौशल, भाषा बोधगम्यता और प्रवीणता का मूल्यांकन करना: बोलना, सुनना, पढ़ना और लिखना, अध्यापन- अधिगम सामग्री: पाठ्यपुस्तक, मल्टीमीडिया सामग्री, कक्षा का बहुभाषायी संसाधन, उपचारात्मक अध्यापन
अधिगम और अर्जन, भाषा अध्यापन के सिद्धांत, सुनने और बोलने की भूमिका; भाषा का कार्य तथा बालक इसे किस प्रकार एक उपकरण के रूप में प्रयोग करते हैं, मौखिक और लिखित रूप में विचारों के संप्रेषण के लिए किसी भाषा के अधिगम में व्याकरण की भूमिका पर निर्णायक संदर्श, एक भिन्न कक्षा में भाषा पढ़ाने की चुनौतियां; भाषा की कठिनाइयां, त्रुटियां और विकार, भाषा कौशल, भाषा बोधगम्यता और प्रवीणता का मूल्यांकन करना: बोलना, सुनना, पढ़ना और लिखना, अध्यापन- अधिगम सामग्री: पाठ्यपुस्तक, मल्टीमीडिया सामग्री, कक्षा का बहुभाषायी संसाधन, उपचारात्मक अध्यापन
भाषा परिभाषा, प्रकृति एवं मानक स्वरूप
भाषा मानव जीवन की एक सामान्य व सतत् प्रक्रिया है, जिसे मानव को ईश्वर द्वारा दिया अमूल्य उपहार कहा जाता है। भाषा का आरंभ मानव
के जन्म के साथ ही हो जाता है। विभिन्न कौशल जैसे बोलना, सुनना, पढ़ना, लिखना, समझना को पूरा करते हुए व्यक्ति भाषा में निपुणता प्राप्त करता है।
आरंभ में बालक भूख लगने पर रोता है तो माँ समझ जाती है
कि बालक को भूख लगी है। फिर धीरे धीरे परविार के संपर्क में रहकर, आपसी संवादों को सुनकर बालक उनका अनुकरण करता है और इस तरह वह भाषा के क्षेत्र
में पारंगत हो जाता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भाषा अनुकरण की वस्तु है तथा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
प्रत्येक परिवार की अपनी बोली होती है, कोई मालवी तो कोई बुंदेली, बघेली, निमाड़ी, गौंडी बोली बोलने वाले हैं। बालक
सर्वप्रथम इन्ही के संपर्क में आता है परिणाम स्वरूप वह यह बोली सीखता है जिसे उसकी मातृभाषा कहा जाता है। धीरे-धीरे बालक का संपर्क क्षेत्र बढ़ता
है, समाज और शिक्षा के क्षेत्र में उसका परिणाम राष्ट्रभाषा और मानक भाषा से
होता है। चाहे वह किसी भी विषय का शिक्षार्थी रहे भाषा सदैव उसके मूल में रहती है। अतः उसका भाषायी पक्ष सुदृढ़ और मजबूत होना अति आवश्यक है। इस
संपूर्ण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका भाषा षिक्षक की होती है भाषा शिक्षक कैसा होना चाहिए, बालक के जीवन मे उसकी क्या भूमिका है यह भी जानना अति आवश्यक है।
बोली और भाषा
बोली भाषा का वह रूप है जो किसी छोटे से क्षेत्र में, एक छोटे से समूह द्वारा बोली जाती किसी छोटे क्षेत्र में स्थानीय व्यवहार से प्रयुक्त होने वाली भाषा का वह अल्पविकसित रूप
बोली कहलाती है, यह मात्र बोलचाल तक ही सीमित रहता है इसका कोई लिखित रूप अथवा साहित्य नही
होता।
सामान्यतः बोली को हम भाषा की प्राथमिक अवस्था भी कह सकत े है क्योकि भाषा अर्जन की उम्र में बालक
सर्वप्रथम अपने क्षेत्र की बोली के सपंर्क में आता है। बाद में शिक्षा के माध्यम के रूप में वह भाषा का उपयोग करता है।
प्रत्येक व्यक्ति की बोलचाल की भाषा अपने आसपास के अन्य व्यक्तियों की भाषा से भिन्न होती है। स्थानीय भाषा होने से
इन्हें बोली कहा जाता है। डाॅ. भोलानाथ तिवारी ने बोली को परिभाषित करते हुए कहा है - ‘‘बोली किसी भाषा के एक ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते है जो ध्वनि, रूप, वाक्य गठन शब्द अर्थसमूह तथा मुहावरे आदि की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूप से भिन्न होता है, किन्तु इतना भिन्न भी नहीं कि अन्य रूपों में बोलने वाले उसे समझ न सकें, साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलने वालों के उच्चारण रूप, रचना, वाक्य गठन, अर्थ, शब्द समूह तथा मुहावरों आदि में बहुत स्पष्ट भिन्नता नही होती है। ’ ये बोलियाँ अपने स्थानीय क्षेत्र के नाम से भी जानी जाती है जसै
-बुंदेलखंड क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली बुंदेली कहलाती हैं उसी प्रकार अवध की
अवधी मालवा की मालवी बोली आदि। इनमें कही बनावटीपन नहीं
है तथा स्थानीय गंध सहज ही मिल जाती है।
राष्ट्रभाषा की आवश्यकता एवं महत्व-
प्रत्येक राष्ट्र की अपनी निश्चित भाषा
होती है, जो उसकी सबसे प्रमुख पहचान होती है संपूर्ण राष्ट्र
उस भाषा, का प्रयोग करता है। संविधान द्वारा उसे मान्यता प्रदान की जाती है इस कारण यह
शासन प्रशासन के क्षेत्र में प्रयुक्त
की जाती हैं। बिना राष्ट्र भाषा के राष्ट्र में कोई भी कार्य सुनियोजित रूप से नहीं हो सकता तथा
भाषा के क्षेत्र में सदैव अराजकता की स्थिति बनी रहती है। हम कह सकते है कि बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्र
के सर्वागीण विकास संभव नहीं है। क्योंकि
परस्पर विचार विनिमय, संवाद पत्राचार, आपसी समझ में भाषा ही हमारी मदद करती
है।
इसीलिए भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने कहा भी
है -
‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल।’’
भाषा ही है जो संपूर्ण राष्ट्र को एकता
के सूत्र में बाँधकर रखती है। उनमें राष्ट्रीयता का भाव जागृत करती है। अतः राष्ट्र के लिए उसकी अपनी एक निर्धारित व सर्वमान्य भाषा होना
अनिवार्य है। यही राष्ट्र की सपर्क भाषा होती है।
- बोली और भाषा
महत्व -
प्रत्येक राष्ट्र के कुछ अपने मानक
होते हैं, जैसे, राष्ट्रीय पुष्प, राष्ट्रीय, पशु, पक्षी, फल। उसी तरह राष्ट्र की अपनी भाषा भी
होती है। यह भाषा राष्ट्रभाषा कहलाती है। डाॅ. द्वारिकाप्रसाद सक्सैना के अनुसार -‘‘जो भाषा किसी राष्ट्र के
भिन्न-भिन्न भाषियों के पारस्परिक विचार विनिमय का साधन बनती हुई समूचे
राष्ट्र को मानात्मक एकता के सूत्र में बाँधती है, उसे राष्ट्रभाषा कहते हैं।’’
राष्ट्र के इतिहास साहित्य, संस्कृति, उस राष्ट्र की विज्ञान, चिकित्सा, तकनीकी विकास आदि के क्षेत्र में निहित
उपलब्धियों
को संग्रहित करने में राष्ट्रभाषा की महती भूमिका है। राष्ट्र भाषा किसी भी राष्ट्र की एकता को सुदृढ़
बनाने में उपयोगी होती हैं किसी भी प्रांत
का व्यक्ति देशके किसी भी कोने में चला जाय उसे अपने विचार विनिमय में किसी प्रकार की कोई कठिनाई नहीं
होगी क्योंकि उस भाषा को बोलने वाले लोग संपूर्ण देश के विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र की कोई एक
भाषा ही राष्ट्र भाषा बनती हैं।
इस दृष्टि से ये देश भर के लोगों को
परस्पर जोड़े रहती है। विद्वानों ने कहा भी है की युवा पीढ़ी की भाषा को बिगाड़ दीजिए वह देश अपने आप पतन के
गर्त में चला जाएगा। इसी से अंदाजा लगाया जा
सकता है कि राष्ट्र भाषा किसी राष्ट्र के विकास के लिए क्या मायने रखती है।
क्योंकि भाषा का प्रभाव संस्कृति
पर और संस्कृति से जुड़ा होता है। समाज और राष्ट्र भाषा के प्रभावित होने पर ये सभी प्रभावित हुए
बिना नहीं रह सकते।
मानक हिंदी भाषा उपयोगिता और महत्व
भारत एक बहुभाषी देश है जहां न केवल कई
भाषाएं बोली जाती है वरन एक ही भाषाओं
की भी कई उपभाषाएं भी प्रचलन में है। उसी प्रकार हिन्दी के भी अनेक रूप प्रचलन में है जैसे - भोजपुरी
हिन्दी, बघेली हिन्दी, अवधी, हिन्दी, निमाड़ी, मालवी आदि। ऐसे में यदि कोई अहिन्दी भाषी व्यक्ति हिन्दी सीखना चाहे तो उसके समक्ष यह समस्या आती है
कि वह कौन सी हिन्दी सीखें?
ताकि व्यवहार में उसका काम आसान हो सके
उसी के साथ, सरकारी कामकाज, आकाशवाणी, दूरदर्शन राष्ट्रीय स्तर पर समाचार
पत्र, महत्वपूर्ण सूचनाओं का आदान प्रदान फिल्में, साहित्य आदि के लिए भी विकट समस्या
उपस्थित होती है कि
आखिर कौन सी हिन्दी को अपनाया जाय? जिसके
निराकरण का एक मात्र हल है
(निवारण) कि
हिन्दी के इन विभिन्न रूपों के बीच कोई ऐसा रूप होना चाहिए जो सर्व व्यापक, सर्व मान्य हो, हिन्दी के सभी विद्वानों द्वारा
प्रयुक्त, व्याकरण दोषों से मुक्त, अधिकांश लोगों द्वारा समझी, लिखी व पढी़ जाने वाली भाषा हो ताकि ज्यादा से ज्यादा
व्यावहारिक रूप में उसका प्रयोग किया जा सक।े वास्तव में शिक्षित वर्ग अपने, सामाजिक, साहित्यिक, व्यावहारिक वैज्ञान तथा प्रषासकीय कार्यों में जिस
भाषा का प्रयोग करता है। भाषा मानक भाषा
कहलाती है। मानक भाषा अपने राज्य/राष्ट्र का सम्पर्क भाषा भी होती है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि -
हिन्दी का सर्वमान्य, सर्वस्वीकृति, सर्वप्रतिष्ठित रूप ही मानक हिंदी भाषा है। विद्वानों ने मानक भाषा के चार
प्रमुख तत्व बताएँ हैं:-
1. ऐतिहासिकता -
मानक भाषा का
गौरवमय इतिहास तथा विपुल साहित्य होना चाहिए।
2. मानकीकरण -
भाषा का कोई
सुनिश्चित और सुनिर्धारित रूप होना चाहिए।
3. जीवतंता -
भाषा साहित्य के
साथ साथ विज्ञान, दर्शन आदि क्षेत्रों में प्रयुक्त की
गई हो तथा नवाचार में पूर्ण रूप से सक्षम हो।
4. स्वायतता -
भाषा किसी अन्य
भाषा पर आश्रित न होकर अपनी स्वतंत्र लिपि, शब्दावली
व व्याकरण परखती है।
वर्तमान में मेरठ, सहारनपुर तथा दिल्ली के पास बोली जाने
वाली बोली भाषा का परिनिष्ठित
रूप है जिसे खड़ी बोली कहा जाता है स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात हिन्दी को मानक भाषा बनाने हेतु
काफी प्रयास किया गया और आज हिन्दी का
यही रूप प्रचलन में है।
1. राज-काज की भाषा - के रूप में मानक भाषा, बेहद
कारगर सिद्ध होती है
विभिन्न कार्यालयों, स्कूलों, महाविद्यालयों में यह भाषा संप्रेषण की दृष्टि से काफी सुविधा जनक होती है।
2. ज्ञान-विज्ञान की भाषा - धर्म, दर्शन और विज्ञान आदि के क्षेत्र में मानक भाषा का प्रयोग, भाषा की उपयोगिता को बढ़ाता है।
3. साहित्य व संस्कृति की भाषा - साहित्य लेखन तथा विभिन्न औपचारिक
अवसरों पर इसी भाषा पर प्रयोग किया जाता है।
4. मनोरंजन के क्षेत्र में - आकाशवाणी, दूरदर्शन, सिनेमा, चलचित्र समाचारपत्र व पत्रिकाओं में इसी भाषा का प्रयोग किया जाता
है।
5. शिक्षा के क्षेत्र में उपयोगिता - विभिन्न विद्यालयों, महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में
अध्यापन, परियोजना कार्य तथा शोध और अनुसंधान हेतु इस भाषा का प्रयोग किया
जाता है।
6. अनुवाद की भाषा के रूप में - अच्छे साहित्य के अनुवाद हेतु हिन्दी मानक भाषा का प्रयोग किया जाता
है ताकि अधिक से भाषा के उत्कृष्ट साहित्य
को जन जन तक पहुंचाया जा सके।
7. कानून व चिकित्सा तकनीकी के क्षेत्र में - प्रत्येक क्षेत्र की अपनी शब्दावली होती है जैसे विज्ञान, कानून, तकनीकी आदि इन शब्दावलियों के मानक रूप तैयार किए जाते हैं, जिससे इस भाषा को बोधगम्य बनाया जा
सकता है।
8. सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक - मानक होने के कारण सभी इसका प्रयोग
करते हैं।
9. एकता के सूत्र में बाँधती हैं - राजकाज, शिक्षा, संपर्क की एक मानक भाषा होने से ये
लोगों को एक सूत्र में बांधती है।
10. शिष्ट समाज की भाषा - क्षेत्र से बाहर प्रयुक्त होने वाली भाषा में मानक भाषा का अपना महत्व है। इसके
माध्यम से पूरे जनसमुदाय से संपर्क स्थापित
हो सकता है।
महत्व - मानक हिन्दी भाषा में मानक शब्दों का प्रयोग होने तथा व्याकरण सम्मत भाषा होने से यह भाषा
उच्चारण व लेखन दोनों में ही अशुद्धियों
से मुक्त होती हैं तथा समस्त प्रतिष्ठित व औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग किया जाता है, शासन की अधिकृत भाषा होने से संपूर्ण
प्रशासन प्रक्रिया में इसी भाषा का प्रयोग किया
जाता है। इसका गौरवशाली इतिहास होने से इसमें विपुल साहित्य उपलब्ध होता है। भाषा का स्वरूप सुनिश्चित और सुनिर्धारित होने से इस भाषा को बोलन,े सीखने व समझने में काफी सुविधा होती है। मानक भाषा का एक गुण है कि इसमें
गतिशीलता बनी रहती हैं । शिक्षा कानून, विज्ञान, चिकित्सा, अनुसंध्ाान के क्षेत्र में मानक भाषा
का प्रयोग न केवल प्रक्रिया को सरस बनाता है वरन
उसे सीखने, में भी सहायक होता है। आज विभिन्न भाषाओ ं के श्रेष्ठ साहित्य का
अनुवाद मानक भाषा का उपलब्ध कराया जा
रहा ह,ै ताकि अधिक से अधिक लोग उस साहित्य से अवगत हो सकें। इसके
साथ ही अपनी स्वतंत्र लिपि व शब्दावली तथा
व्याकरण होने से इसमें संदेह की संभावना
भी नहीं रहती। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि -
किसी भी क्षेत्र प्रदेश में शिक्षा, तकनीकी, कानून, औपचारिक स्थितियों, लेखन, प्रशासन, संबंधी गतिविधियों तथा शिष्ट समाज में
प्रयुक्त करने हेतु मानक
भाषा का महत्वपूर्ण स्थान हैं। यह न केवल सुसंस्कृत व साधुभाषा है बल्कि हमारी संप्रेषण क्षमता को भी
बढ़ाती है।
हिन्दी का मानक स्वरूप-
मानक हिन्दी भाषा संतात्पर्य हिन्दी
भाषा के उस स्थिर रूप से हैं जो उस पूरे
क्षेत्र में शब्दावली तथा व्याकरण की दृष्टि से समझन ै योग्य तथा सभी लोगो ं द्वारा मान्य हो, बोधगम्य हो। अन्य भाषाओं की अपेक्षा प्रतिष्ठित हो। व्याकरण सम्मत हो।
हिन्दी ही आधुनिक मानक शैली का विकास
हिन्दी भाषा की एक बोली, जिसका नाम खड़ी बोली है, के आधार पर हुआ है। हिन्दी बोली, ब्रज, अवधी, निमाड़ी आदि क्षेत्रों के लोग परस्पर व्यवहार में
अपनी इन्ही क्षेत्रीय बोलियों
का उपयोग करते हैं मगर औपचारिक अवसरों पर
मानक हिन्दी का ही प्रयोग करते हैं। उदाहरण स्वरूप मैिथलीशरण गुप्त चिरगाँव के थ े वे घर में बुंदेलखण्डी
बोलते थे उसी प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी
भोजपुर के थे घर में भोजपुरी बोलते थे
किन्तु ये सभी व्यक्ति जब साहित्य लिखते थे तो मानक भाषा का व्यवहार करते थे। अतः हम कह सकते हैं कि मानक
भाषा अपनी भाषा का एक विशिष्ट स्तर है।
मानक स्वरूप -
हिन्दी ‘मानक’ शब्द से तात्पर्य है पैमाना जिसकी
उत्पत्ति अंग्रेजी के स्टैंडर्ड
शब्द के स्थान पर हुई है। रामचंद्र वर्मा ने 1949 में सर्वप्रथम अपने
प्रकाशित ‘प्रामाणिक हिन्दी कोष’ में मानक शब्द को प्रयुक्त किया। इसका अर्थ उन्होंने ‘निश्चित या स्थिर किया हुआ सर्वमान्य ‘मान या माप’ बताया जिसके अनुसार किसी भी योग्यता, श्रेष्ठता, गुण आदि का अनुमान या कल्पना की जाती है।’
तब यही शब्द भाषा के क्षेत्र में ‘स्टेंडर्ड लैंग्वेज’ (मानक भाषा) के रूप में प्रयुक्त हुआ। हिन्दी आज हमारी
राजभाषा है और हिन्दी के कई रूप यहां प्रचलन में है। इससे समस्या आती है कि बुंदेली हिन्दी, बघेली हिन्दी, अवधी हिन्दी, हरियाणवी हिन्दी आदि ऐसे मे यदि कोई व्यक्ति हिन्दी सीखना चाहे अथवा अपना साहित्य हिन्दी में लिखना
चाहे एक ऐसी हिन्दी में जिसे सभी पढ सके, समाचार पत्र,
दूरदर्शन, आकाशवाणी, आदि तब सभी के समक्ष यह प्रश्न मुँह बाए खड़ा होगा कि कौन सी हिन्दी? वे अपनाए ताकि उनका श्रम सार्थक हो। इस कारण ही मानक हिंदी भाषा को स्थापित
किया गया।
मानक भाषा की उपयोगिता -
मानक हिन्दी भाषा ही देश की अधिकृत
भाषा है जो विभिन्न स्थानों पर भी एक सुनिश्चित व सुनिर्धारित रूप में मान्य होती है किन्तु अपनी जीवन्तता
बनाए रखने के लिए इसमें गतिशीलता भी बनी
रहती है। भारत एक हिन्दी भाषी देश होने से यहाँ हिन्दी के कई रूप प्रचलन में है किन्तु सभी की सुविधा को
ध्यान में रखते हुए भाषा का हिन्दी मानक रूप
तैयार किया गया है ।
भाषा व भाषा विकास के सिद्धांत
भूमिका
भाषा, मनुष्य के भाव, विचार व
अनभुव को अभिव्यक्त करने
का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा वयापक साधन है।भाषा मूलतः
ध्वनि-संकेतों की एक व्यवस्था है, यह मानव मुख से निकली अभिव्यक्ति है, यह विचारों के आदान-प्रदान का एक सामाजिक साधन है और इसके शब्दों के
अर्थ प्रायः रूढ़ होते हैं। भाषा अभिव्यक्ति
का एक ऐसा समर्थ साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों को दूसरों पर प्रकट कर सकता है और दूसरों
के विचार जान सकता है। अतः हम कह सकते
हैं कि 'भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए
रूढ़ अर्थों में
प्रयुक्त ध्वनि
संकेतों की व्यवस्था ही भाषा है।'
भाषा विकास के सिद्धांत
1. दिव्योत्वत्ति सिद्धांत
2 . संकेत सिद्धांत
३. रतन सिद्धांत
4 . आवेग सिद्धांत
5 . श्रम ध्वनि सिद्धांत
6 . अनुकरण सिद्धांत
7 . इंगित सिद्धांत
भाषा अधिगम एवं भाषा अर्जन
भाषा मानव जीवन की एक सामान्य व सतत्
प्रक्रिया है, जिसे मानव को ईश्वर द्वारा दिया अमूल्य उपहार कहा जाता है।
भाषा का आरंभ मानव के जन्म के साथ ही
हो जाता है। विभिन्न कौशल जैसे बोलना, सुनना, पढ़ना, लिखना, समझना को पूरा करते हुए व्यक्ति भाषा में
निपुणता प्राप्त करता है।
आरंभ में बालक भूख लगने पर रोता है तो माँ समझ जाती है कि बालक को भूख लगी है। फिर धीरे धीरे परविार के संपर्क में रहकर, आपसी संवादों को सुनकर बालक उनका अनुकरण करता है और इस तरह वह भाषा के क्षेत्र में पारंगत हो जाता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भाषा अनुकरण की वस्तु है तथा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है
आरंभ में बालक भूख लगने पर रोता है तो माँ समझ जाती है कि बालक को भूख लगी है। फिर धीरे धीरे परविार के संपर्क में रहकर, आपसी संवादों को सुनकर बालक उनका अनुकरण करता है और इस तरह वह भाषा के क्षेत्र में पारंगत हो जाता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भाषा अनुकरण की वस्तु है तथा निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है
भाषा और चिंतन
मनुष्य की चेतना ( consciousness ) के विकास का एक और प्रबल साधन उसकी भाषा है। यह चिंतन ( thoughts ) की प्रत्यक्ष वास्तविकता ( direct reality ) है। विचार हमेशा शब्दों में व्यक्त किए जाते हैं, अतः यह कहा जा सकता है कि भाषा विचार की अभिव्यक्ति का रूप है।
भाषा एक विशेष संकेत प्रणाली है।
प्रत्येक भाषा अलग-अलग शब्दों, अर्थात
उन पारंपरिक ध्वनि संकेतों से बनी होती है, जो विभिन्न वस्तुओं और प्रक्रियाओं के द्योतक होते हैं। भाषा का दूसरा
संघटक अंग है व्याकरण के कायदे, जो शब्दों से वाक्य बनाने में मदद करते
हैं। ये वाक्य ही विचार व्यक्त करने का साधन हैं। एक भाषा के शब्दों से, व्याकरणीय
कायदों की बदौलत असंख्य सार्थक वाक्य
बोले या लिखे जा सकते हैं और पुस्तकों या लेखों की रचना की जा सकती है।
कविता की दृष्टि से हिंदी
साहित्य का काल विभाजन
कविता के
उद्देश्यों के निर्धारण, कविता
की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया की समझ तथा
काव्य के सौंदर्र्य बोध के मूल्यांकन की दृष्टि से यह आवश्यक है कि पहले हिंदी कविता की विकास परंपरा
में समय-समय पर प्रचलित कविता से जुडी प्रवृतियों एवं वादो से परिचित हुआ जाए
।
कविता की दृष्टि से हिंदी
साहित्य का काल विभाजन इस प्रकार किया जाता है:
- आदिकाल (1000 से 1400 ई.)
- भक्तिकाल ( 14000 से 1700 ई.)
- रीतिकाल (1700 से 1850 ई.)
- आधुनिक काल ( 1850 से अब तक )
आदिकाल (1000 से 1400 ई.)
भक्तिकाल ( 14000 से 1700 ई.)
रीतिकाल (1700 से 1850 ई.)
आधुनिक काल ( 1850 से अब तक )
आधुनिक
काल की तीन काव्य प्रवत्तियाँ इस प्रकार है।
- छायावाद
- प्रगतिवाद
- प्रयोगवाद
हिन्दी शिक्षक के विशेष गुण
हिन्दी शिक्षक में कुछ विशेष गुणों की
अपेक्षा की जाती है क्योंकि वह भाषा और साहित्य का अध्ययन करवाता है भाषा और साहित्य एक सामाजिक एवं
सांस्कृतिक सरोकार है, वह मानव की अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का
सबसे सशक्त एवं प्रभावी माध्यम
है। हिन्दी अध्यापक के गुण निम्नलिखित हैः
1. हिन्दी भाषा का सम्पूर्ण ज्ञानः-हिन्दी अध्यापक को हिन्दी भाषा का ज्ञान होना चाहिये। हिन्दी भाषा के
उद्भव एवं विकास तथा हिन्दी भाषा के विविध रूपों की जानकारी भली प्रकार से होनी चाहिए। हिन्दी भाषा की ध्वनियों, वर्ण व्यवस्था, शब्द संरचना, वाक्य संरचना व्याकरण के साथ साथ हिन्दी ध्वनि एव लिपि के बदलते हुए
स्वरूप् की गहन जानकारी हिन्दी अध्यापक को होनी चाहिए।
शिक्षण के सिद्धान्त व
शिक्षण सूत्र
प्रसिद्ध शिखाशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने शिक्षण विधि पर विचार करते समय शिक्षण प्रक्रिया के विश्लेषण के आधार पर
कुछ सामान्य शिक्षण सूत्रों की रचना की वे निम्नलिखित है।
1. ज्ञात से अज्ञान की ओरः-जो बात छात्र जानता है, उसे आधार बनाकर अज्ञात वस्तुओं की जानकारी देना।
- हिन्दी शिक्षक के विशेष गुण
2. मूर्त से अमूर्त की ओरः इसे ‘‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर’ भी कहा जाता है घोड़ा देखकर घोड़े का प्रत्यय बनाया जायेगा। माॅडल, चार्ट आदि के सहारे किसी वस्तु का वर्णन करना सरल होता है।
3. अनिश्चित से निश्चित की ओर- देखी हुई वस्तु के विषय में बालक अपनी सुविधा और आवश्यकता के अनुसार कुछ
अनिश्चित विचार रखता है। इन्हींे अनिश्चित विचारों के आधार पर निश्चित एवं स्पष्ट विचार बनाये जाने चाहिये। अस्पष्ट शब्दार्थों से स्पष्ट, निश्चित तथा सूक्ष्म शब्दार्थों की ओर
बढा जाए।
4. विशेष से सामान्य की ओर- पहले विशेष पदार्थो पर क्रियाओं को प्रस्तुत किया जाए, तत्पश्चात सामान्य निष्कर्षांे पर
पहंुॅंचा जाए। व्याकरण पढने में पहले उदाहरण प्रस्तुत
किए जाये तत्पश्चात सामान्यीकरण किया जाएं।
5. मनोवैज्ञानिक से तार्किक की ओर- पहले वह पढाया जाए जो छात्रों की योग्यता
एवं रूचि के अनुकूल हो, तत्पश्चात विषय सामग्री के तार्किक क्रम
पर ध्यान दिया जाए।
6. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर- एक बार शब्द, वाक्य भाव या अर्थ का विश्लेषण करके उसे छोड न दिया जाए, वरन् बाद में उनका संश्लेषण करके एक स्पष्ट सामान्य विचार बनाने की ओर
छात्रों को उन्मुख किया जाए।
7. प्रकृति का अनुसरण-बालकों की प्रकृति के अनुसार शिक्षा दी
जाए और प्राकृतिक वातावरण मे शिक्षा हो।
भाषा सिखाने मे
ंप्राकृतिक वातावरण एवं बालक के स्वभाव का विशेष महत्व है।
8. पूर्ण से अंश की ओर-पहले वाक्य, फिर शब्द ओर तब वर्ण की शिक्षा दी जाये। पहले सम्पूर्ण
कविता का वाचन हो, तत्पश्चात उसका खण्ड वाचन हो।
9. सरल से कठिन की ओर- सरल शब्दों, वाक्यांशों, मुहावरों गीतों आदि को पहले पढाना चाहिए, तत्पश्चात् कठिन विषयों को लिया जाए।
लक्ष्य तथा उद्देश्य में अन्तर
किसी भी कार्य को सुचारू रुप से करने के लिये आवश्यक है कि उसके उद्देश्य व लक्ष्य निर्धारित किए जाए उद्देश्य
क्रिया को निश्चित दिशा प्रदान करते हैं। शिक्षण विधियां और पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्यों पर निर्भर करते हैं। उद्देश्य निश्चित करके कार्य को
आरम्भ किया जाता है। संसार मे जितनी भी क्रियाएं होती है वे किसी लक्ष्य की और उन्मुख होती हैं।
जब कोई भी व्यक्ति किसी कार्य को करता है तो वह सोचकर करता हैं कि इसका
अन्त भी है। इसलिये कोई भी क्रिया लक्ष्यविहीन नही की जा सकती। वैज्ले ने
ठीक ही कहा हैं, ”उद्देश्यों के ज्ञान के बिना अध्यापक उस नाविक के समान है
जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान नहीं है तथा छात्रा उस पतवार विहीन नौका के
समान है जो समुद्र की लहरों में थपेडे खाती तट की ओर बह रही है।’’ क्या पढ़ाएं
पाठ्यक्रम में आता हैं, कैसे पढ़ाएं शिक्षण विधियों की जानकारी से
सम्बन्धित है तथा क्यों पढ़ाए शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करते हैं।
किसी भी कार्य को सुचारू रुप से करने
के लिये आवश्यक है कि उसके उद्देश्य व लक्ष्य निर्धारित किए जाए उद्देश्य क्रिया को निश्चित दिशा प्रदान
करते हैं। शिक्षण विधियां और पाठ्यक्रम
शिक्षा के उद्देश्यों पर निर्भर करते हैं। उद्देश्य निश्चित करके कार्य को आरम्भ किया जाता है। संसार मे
जितनी भी क्रियाएं होती है वे किसी लक्ष्य की
और उन्मुख होती हैं।
जब
कोई भी व्यक्ति किसी कार्य को करता है तो वह सोचकर करता हैं कि इसका अन्त भी है। इसलिये
कोई भी क्रिया लक्ष्यविहीन नही की जा सकती। वैज्ले ने ठीक ही कहा हैं, ”उद्देश्यों के ज्ञान के बिना अध्यापक उस नाविक के समान है जिसे अपने लक्ष्य का
ज्ञान नहीं है तथा छात्रा उस पतवार विहीन
नौका के समान है जो समुद्र की लहरों में थपेडे खाती तट की ओर बह रही है।’’ क्या पढ़ाएं पाठ्यक्रम में आता हैं, कैसे पढ़ाएं शिक्षण विधियों की जानकारी से सम्बन्धित है तथा क्यों
पढ़ाए शिक्षा के उद्देश्य निर्धारित करते हैं।
लक्ष्य तथा उद्देश्यों में अंतर (Difference between Aims and objectives)
लक्ष्य व उद्देश्य शिक्षा के कुशल
प्रशासन तथा प्रबन्धन मे मदद करते हैं अध्यापक का मार्गदर्शन करते है तथा विद्यार्थी को पढ़ने के लिये
प्ररेणा प्रदान करते हैं। मानव जीवन के
प्रत्येक पक्ष तथा दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया की सफलता के लिये उद्देश्यों का
होना नितान्त आवश्यक हैं जिसके निम्न
कारण हैंः-
1. उद्देश्य मार्गदर्शक हैं, यह
अध्यापक को रास्ते से भटकनें नहीं देते।
2. यह पाठ्यक्रम के आधार पर शिक्षण विधियों के चयन में सहायक होते हैं।
3. शिक्षण में प्रयुक्त सहायक सामग्री एवं साधनों के चयन में सहायक है।
4. यह विद्यार्थी को कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं और मन से
उसे दृढ़ निश्चयी बनाते हैं।
5. यह शिक्षा के मूल्यांकन में भी सहायक सिद्ध होते हैं।
हिन्दी शिक्षण प्रविधियाँ
भाषा शिक्षण अन्य विषयों के शिक्षण से भिन्न है। अतः इसके शिक्षण की प्रविधियाँ भी परपंरागत शिक्षण कुछ भिन्न है इनमें कुछ शिक्षक प्रधान है तो कुछ बाल प्रधान है। शिक्षा के क्षेत्र में हुए अनेक नवीन अन्वेषणों और प्रयोगों के कारण बालकेन्द्रित शिक्षा का विचार प्रबल हो गया है। बालक की रूचि, क्षमता और मानसिक स्तर के आधार पर अलग-2 शिक्षण पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है।
इनमें प्रमुख प्रविधियाँ निम्नानुसार है।
ध्वनि साम्य विधि -
हिन्दी शिक्षण में ध्वनि साम्य प्रविधि का उपयोग सुनने और बोलने की योग्यताओं और कौशल के विकास के लिए किया जाता है। बच्चों में अनुकरण की प्रवृत्ति होती है वे जैसा सुनते है वैसा बोलते है ध्वनि साम्य प्रविधि मेंअनुकरण और अभ्यास दोनों ही क्रियाओं के माध्यम से सुनने और बोलने की योग्यता को निखरा जाता है, वे स्पष्टोच्चार, उचित लय, स्वराधात, बलाघात के साथ बोलने का अभ्यास तथा अर्थ विभेद करने के समर्थ हो जातेहै।जैसे-जल, कल, पल। रतन, जतन, वतन खून, ऊन माली, जाली, काली भैया, गैया, मैगा चंदन, अंचल, चंचल/फक्कड़, लक्कड़।
हिंदी भाषा शिक्षण की चुनौतियां
प्रत्येक
भाषा की अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और सवैधानिक स्थिति
होती है, उसी के अनुरूप उसकी शैक्षिक स्थिति और समस्याएं
होती है । हिंदी भाषा का उत्तर भारत में मातृभाषा के रूप में अध्यापन होता है,
तो दक्षिणी भारत में द्वितीय भाषा के रूप में अध्यापन होता है।
व्याकरण शिक्षण
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, विचारों के आदान-प्रदान के लिए कुछ सार्थक ध्वनि-प्रतीकों को अपनाया। ये ध्वनि प्रतीक ही भाषा कहलाए। कालान्तर में भाषाओं के सर्वमान्य रूपों का विश्लेषण कर उनमें कुछ नियम निकाले गए। ये नियम ही भिन्न-भिन्न भाषाओं के अपने व्याकरण के अंग है। यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले भाषा का विकास हुआ, फिर व्याकरण बना।
व्याकरण ऐसा शास्त्र है जो हमें यह बताता है कि किस वाक्य में कौन सा शब्द कहाँ रहना चाहिए। व्याकरण तो भाषा के सर्वमान्य रूप का संरक्षण करता है, लेकिन भाषा तो फिर भी व्याकरण के नियमों से इधर-उधर हो ही जाती है।
व्याकरण का महत्त्व
छात्रों! यहाँ हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि भाषा परिवर्तनशील है, विकासशील है। व्याकरण उसके इस विकास पर नियंत्रण का कार्य करता है। व्याकरण भाषा को अव्यवस्थित एवं उच्श्रृंखल होने से बचाता है। अतः भाषा के स्वरूप को शुद्ध रखने, उसको विकृतियों से बचाने के लिए व्याकरण की शिक्षा आवश्यक है। व्याकरण भाषा का सहचर है। भाषा रूप भवन की रचना शब्द रूपी ईंट व्याकरण रूपी सीमेंट के समुचित योग से सम्भव है।
कक्षा में उपलब्धि परीक्षण का प्रयोजन
उपलब्धि परीक्षणों का उपयोग मुख्य रूप
से निम्नलिखित उद्देश्यों दृष्टि से किया जाता है:
१. यह आंकना कि विद्यार्थियों में किसी
भी इकाई में सफलता प्राप्त करने सम्बन्धी
ज़रूरी पूर्वापेक्षी कौशल मौजूद है या नहीं, या
फिर यह जानना कि क्या
योजनाबद्ध शिक्षण के उद्देश्य प्राप्त कर लिय गए है या नहीं ।
२. विद्यार्थियों के अधिगम को मॉनीटर
करना और अध्यापन-अधिगम प्रक्रिया के दूरं विद्यार्थियों और शिक्षको दोनों के लिय निरन्तर प्रतिपुष्टि
उपलब्ध कराना ।
३. विद्यार्थियों की अधिगम सम्बन्धी
कठिनाइयों का पता लगाना, चाहे वे स्थाई हो अथवा आवर्ती ।
४. ग्रेड देना ।
प्रश्नो के प्रकार
१. निबंधात्मक प्रश्न
२. संक्षिप्त उत्तर वाले प्रश्न
३.
वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न
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